Thursday, July 5, 2018

भक्त की पीड़ा

उड़ीसा प्रान्त में जगन्नाथ पूरी में एक भक्त रहते थे , श्री माधव दास जी  अकेले रहते थे, कोई संसार से इनका लेना देना नही।अकेले बैठे बैठे भजन किया करते थे, नित्य प्रति श्री जगन्नाथ प्रभु का दर्शन करते थे और उन्ही को अपना सखा मानते थे, प्रभु के साथ खेलते थे।
प्रभु इनके साथ अनेक लीलाए किया करते थे | प्रभु इनको चोरी करना भी सिखाते थे भक्त माधव दास जी अपनी मस्ती में मग्न रहते थे |

एक बार माधव दास जी को अतिसार( उलटी – दस्त ) का रोग हो गया। वह इतने दुर्बल हो गए कि उठ-बैठ नहीं सकते थे, पर जब तक इनसे बना ये अपना कार्य स्वयं करते थे और सेवा किसी से लेते भी नही थे।

कोई कहे महाराजजी हम कर दे आपकी सेवा तो कहते नही मेरे तो एक जगन्नाथ ही है वही मेरी रक्षा करेंगे । ऐसी दशा में जब उनका रोग बढ़ गया वो उठने बेठने में भी असमर्थ हो गये ,

तब श्री जगन्नाथजी स्वयं सेवक बनकर इनके घर पहुचे और माधवदासजी को कहा की हम आपकी सेवा कर दे।भक्तो के लिए अपने क्या क्या नही किया क्यूंकि उनका इतना रोग बढ़ गया था की उन्हें पता भी नही चलता था की कब मल मूत्र त्याग देते थे। वस्त्र गंदे हो जाते थे।उन वस्त्रो को जगन्नाथ भगवान अपने हाथो से साफ करते थे, उनके पुरे शरीर को साफ करते थे, उनको स्वच्छ करते थे।कोई अपना भी इतनी सेवा नही कर सके, जितनी जगन्नाथ भगवान ने भक्त माधव दास जी की करी है।भक्त माधव दास जी पर प्रभु का स्नेह । जब माधवदासजी को होश आया,तब उन्होंने तुरंत पहचान लीया की यह तो मेरे प्रभु ही हैं। एक दिन श्री माधवदासजी ने पूछ लिया प्रभु से – “प्रभु आप तो त्रिभुवन के मालिक हो, स्वामी हो, आप मेरी सेवा कर रहे हो आप चाहते तो मेरा ये रोग भी तो दूर कर सकते थे, रोग दूर कर देते तो ये सब करना नही पड़ता”

ठाकुरजी कहते हा देखो माधव! मुझसे भक्तों का कष्ट नहीं सहा जाता,इसी कारण तुम्हारी सेवा मैंने स्वयं की। जो प्रारब्द्ध होता है उसे तो भोगना ही पड़ता है।

अगर उसको काटोगे तो इस जन्म में नही पर उसको भोगने के लिए फिर तुम्हे अगला जन्म लेना पड़ेगा और मै नही चाहता की मेरे भक्त को ज़रा से प्रारब्द्ध के कारण अगला जन्म फिर लेना पड़े, इसीलिए मैंने तुम्हारी सेवा की लेकिन अगर फिर भी तुम कह रहे हो तो भक्त की बात भी नही टाल सकता

भक्तो के सहायक बन उनको प्रारब्द्ध के दुखो से, कष्टों से सहज ही पार कर देते है प्रभु अब तुम्हारे प्रारब्द्ध में ये 15 दिन का रोग और बचा है, इसलिए 15 दिन का रोग तू मुझे दे दे 15 दिन का वो रोग जगन्नाथ प्रभु ने माधवदास जी से ले लिया आज भी इसलिए जगन्नाथ भगवान होते है बीमार ।  आज भी वर्ष में एक बार जगन्नाथ भगवान को स्नान कराया जाता है ( जिसे स्नान यात्रा कहते है ) स्नान यात्रा करने के बाद हर साल 15 दिन के लिए जगन्नाथ भगवान आज भी बीमार पड़ते है। 15 दिन के लिए मंदिर बंद कर दिया जाता है  कभी भी जगनाथ भगवान की रसोई बंद नही होती पर इन 15 दिन के लिए उनकी रसोई बंद कर दी जाती है।
भगवान को 56 भोग नही खिलाया जाता , ( बीमार हो तो परहेज़ तो रखना पड़ेगा ) 15 दिन जगन्नाथ भगवान को काढ़ो का भोग लगता है | इस दौरान भगवान को आयुर्वेदिक काढ़े का भोग लगाया जाता है। जगन्नाथ धाम मंदिर में तो भगवान की बीमारी की जांच करने के लिए हर दिन वैद्य भी आते हैं।

काढ़े के अलावा फलों का रस भी दिया जाता है। वहीं रोज शीतल लेप भी लगया जाता है। बीमार के दौरान उन्हें फलों का रस, छेना का भोग लगाया जाता है और रात में सोने से पहले मीठा दूध अर्पित किया जाता है।

भगवान जगन्नाथ बीमार हो गए है और अब 15दिनों तक आराम करेंगे। आराम के लिए 15 दिन तक मंदिरों पट भी बंद कर दिए जाते है और उनकी सेवा की जाती है। ताकि वे जल्दी ठीक हो जाएं।

जिस दिन वे पूरी तरह से ठीक होते है उस दिन जगन्नाथ यात्रा निकलती है, जिसके दर्शन हेतु असंख्य भक्त उमड़ते है।

Sunday, June 3, 2018

कर्म का सामना

महाभारत में कर्ण ने श्री कृष्ण से पूछा "मेरी माँ ने मुझे जन्मते ही त्याग दिया, क्या ये मेरा अपराध था कि मेरा जन्म एक अवैध बच्चे के रूप में हुआ? दोर्णाचार्य ने मुझे शिक्षा देने से मना कर दिया क्योंकि वो मुझे क्षत्रीय नही मानते थे, क्या ये मेरा कसूर था.द्रौपदी के स्वयंवर में मुझे अपमानित किया गया, क्योंकि मुझे किसी राजघराने का कुलीन व्यक्ति नही समझा गया. श्री कृष्ण मंद मंद मुस्कुराते हुए बोले- "कर्ण, मेरा जन्म जेल में हुआ था। मेरे पैदा होने से पहले मेरी मृत्यु मेरा इंतज़ार कर रही थी। जिस रात मेरा जन्म हुआ ।उसी रात मुझे मेरे माता-पिता से अलग होना पड़ा।मैने गायों को चराया और गोबर को उठाया। जब मैं चल भी नही पाता था.. तो मेरे ऊपर प्राणघातक हमले हुए। कोई सेना नही, कोई शिक्षा नही, कोई गुरुकुल नही, कोई महल नही, मेरे मामा ने मुझे अपना सबसे बड़ा शत्रु समझा। बड़े होने पर मुझे ऋषि सांदीपनि के आश्रम में जाने का अवसर मिला। मुझे बहुत से विवाह राजनैतिक कारणों से या उन स्त्रियों से करने पड़े ।जिन्हें मैंने राक्षसों से छुड़ाया था! जरासंध के प्रकोप के कारण मुझे अपने परिवार को यमुना से ले जाकर सुदूर प्रान्त मे समुद्र के किनारे बसाना पड़ा।हे कर्ण! किसी का भी जीवन चुनौतिओं से रहित नहीं है। सबके जीवन मे सब कुछ ठीक नहीं होता ।सत्य क्या है और उचित क्या है? ये हम अपनी आत्मा की आवाज़ से स्वयं निर्धारित करते हैं।इस बात से कोई फर्क नही पड़ता कितनी बार हमारे साथ अन्याय होता है, इस बात से कोई फर्क नही पड़ता कितनी बार हमारा अपमान होता है, इस बात से भी कोई फर्क नही पड़ता कितनी बार हमारे अधिकारों का हनन होता है।फ़र्क़ सिर्फ इस बात से पड़ता है कि हम उन सबका सामना किस प्रकार कर्मज्ञान के साथ करते हैं।कर्मज्ञान है तो ज़िन्दगी हर पल मौज़ है वरना समस्या तो सभी के साथ रोज है

Saturday, June 2, 2018

नज़र

मजनू पागल था लैला के लिए।  उसके गांव के राजा ने उसे बुलाया, क्योंकि उसकी हालत बिगड़ती गयी, बिगड़ती गयी, गांव भर उसकी चर्चा करता, पागल भी लोग उसे कहते, दीवाना भी कहते और दया भी खाते।
आखिर राजा ने उसे बुलाया और कहा—तू इस लैला के पीछे पड़ा है, मैं तेरी लैला को जानता हूं; सच तो यह है कि तेरा इतना लगाव देखकर मैं भी उत्सुक हो गया था कि देखूं यह लैला है कौन?

मगर पाया कि एक साधारण सी स्त्री; तू व्यर्थ परेशान हो रहा है। तुझ पर मुझे दया आती है। तू महल के सामने से रोता निकलता है, जब देख तेरे आंसू गिरते रहते हैं, हर गली तूने भर दी है गांव कीं—लैला लैला। मुझे तुझ पर इतनी दया आती है कि तू मेरे राजमहल से कोई भी स्त्री चुन ले

उसने बारह युवतियां खड़ी करवा दीं। सुंदरतम स्त्रियां थीं राजमहल में, देश की सुंदरतम स्त्रियां थीं। मजनू से कहा—चुन ले। मजनू उनके पास गया, एक—एक को इनकार करता गया, फिर आखिर में बोला—लेकिन इनमें लैला तो कोई भी नहीं।

राजा हंसा, उसने कहा—तू पागल है, तू निश्चित पागल है, लोग ठीक ही कहते हैं। लैला इनके सामने कुछ भी नहीं, और मैंने तेरी लैला को देखा है, और मैं ज्यादा अनुभवी हूं, जिंदगी में मैंने बहुत सुंदर स्त्रियां जानी हैं, तूने अभी जाना क्या, जवान छोकरा है!

मजनू ने कहा—आप कहते हैं ठीक ही कहते होंगे, लेकिन लैला को देखने के लिए मजनू की नजर चाहिए, उसके बिना कोई लैला को देख ही नहीं सकता

आपके पास मेरी आंख कहां? आपने अपनी आंख से देखा होगा। मेरी आंख से देखें, तब लैला दिखायी पड़ेगी

इसलिए प्रेमी पागल मालूम होता है, क्योंकि किसी और को तो दिखायी नहीं पड़ता, प्रेमी को न मालूम क्या क्या दिखायी पड़ता है..

Monday, March 12, 2018

जीवित या मृत

जन्म पत्री मृतक की है या जीवित की, अर्थात कुंडली देख कर ये ज्ञात करना कि जातक जिन्दा है या मर चूका :

इसमें जन्म लग्न, अष्टम स्थान की राशि और प्रश्न लग्न इन तीनो की संख्या को जोड़ कर जन्मकुंडली के अष्टमेश की राशि संख्या से गुणा कर के लग्नेश की राशि संख्या से भाग देने पर विषम अंक - 1,3,5,7,9,11 शेष रहे तो जीवित की और सम अंक - 2,4,6,8,10,12 शेष रहे तो मृतक की जन्म पत्रिका होती है।

उदहारण : प्रश्न लग्न तुला, जन्म लग्न मीन और अष्टमेश की राशि 9, लग्नेश की राशि 5

7 (प्रश्न लग्न) + 12 (जन्म लग्न) + 7 ( अष्टम स्थान की राशि ) = 26 × 9 ( अष्टमेश की राशि ) = 234 ÷ 5 ( लग्नेश की राशि ) = 46 लब्ध 4 शेष ।

अतएव मृतक की जन्म पत्रिका है ।

Friday, January 12, 2018

उत्साह का परिणाम

एक समय की बात है  दो राज्यों में युद्ध छिड़ गया था। छोटा जो राज्य था, भयभीत था; हार जाना उसका निश्चित था। उसके पास सैनिकों की संख्या कम थी। उस राज्य के सेनापतियों ने युद्ध पर जाने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि यह तो सीधी मूढ़ता होगी; हम अपने आदमियों को व्यर्थ ही कटवाने ले जाएं। हार तो निश्चित है। और जब सेनापतियों ने इनकार कर दिया युद्ध पर जाने से. उन्होंने कहा कि यह हार निश्चित है, तो हम अपना मुंह पराजय की कालिख से पोतने जाने को तैयार नहीं; और अपने सैनिकों को भी व्यर्थ कटवाने के लिए हमारी मर्जी नहीं। मरने की बजाय हार जाना उचित है। मर कर भी हारना है, जीत की तो कोई संभावना मानी नहीं जा सकती।

सम्राट भी कुछ नहीं कह सकता था, बात सत्य थी, आंकड़े सही थे। तब उसने गांव में बसे एक फकीर से जाकर प्रार्थना की कि क्या आप मेरी फौजों के सेनापति बन कर जा सकते हैं? यह उसके सेनापतियों को समझ में ही नहीं आई बात। सेनापति जब इनकार करते हों, तो एक फकीर को--जिसे युद्ध का कोई अनुभव नहीं, जो कभी युद्ध पर गया नहीं, जिसने कभी कोई युद्ध किया नहीं, जिसने कभी युद्ध की कोई बात नहीं की--यह बिलकुल अव्यावहारिक आदमी को आगे करने का क्या प्रयोजन है?

लेकिन वह फकीर राजी हो गया। जहां बहुत-से व्यावहारिक लोग राजी नहीं होते वहां अव्यावहारिक लोग राजी हो जाते हैं। जहां समझदार पीछे हट जाते हैं, वहां जिन्हें कोई अनुभव नहीं है, वे आगे खड़े हो जाते हैं। वह फकीर राजी हो गया। सम्राट भी डरा मन में, लेकिन फिर भी ठीक था। हारना भी था तो मर कर हारना ही ठीक था। फकीर के साथ सैनिकों को जाने में बड़ी घबड़ाहट हुई: यह आदमी कुछ जानता नहीं! लेकिन फकीर इतने जोश से भरा था, सैनिकों को जाना पड़ा। सेनापति भी सैनिकों के पीछे हो लिए कि देखें, होता क्या है?

जहां दुश्मन के पड़ाव पड़े थे उससे थोड़ी ही दूर उस फकीर ने एक छोटे-से मंदिर में सारे सैनिकों को रोका, और उसने कहा कि इसके पहले कि हम चलें, कम से कम भगवान को कह दें कि हम लड़ने जाते हैं और उनसे पूछ भी लें कि तुम्हारी मर्जी क्या है। अगर हराना ही हो तो हम वापस लौट जाएं और अगर जिताना हो तो ठीक।

सैनिक बड़ी आशा से मंदिर के बाहर खड़े हो गए। उस आदमी ने हाथ जोड़ कर आंख बंद करके भगवान से प्रार्थना की, फिर खीसे से एक रुपया निकाला और भगवान से कहा कि मैं इस रुपए को फेंकता हूं, अगर यह सीधा गिरा तो हम समझ लेंगे कि जीत हमारी होनी है और हम बढ़ जाएंगे आगे, और अगर यह उलटा गिरा तो हम मान लेंगे कि हम हार गए, हम वापस लौट जाएंगे, राजा से कह देंगे, व्यर्थ मरने की व्यवस्था मत करो; हमारी हार निश्चित है, भगवान की भी मर्जी यही है।

सैनिकों ने गौर से देखा, उसने रुपया फेंका। चमकती धूप में रुपया चमका और नीचे गिरा। वह सिर के बल गिरा था; वह सीधा गिरा था। उसने सैनिकों से कहा, अब फिक्र छोड़ दो। अब खयाल ही छोड़ दो कि तुम हार सकते हो। अब इस जमीन पर कोई तुम्हें हरा नहीं सकता। रुपया सीधा गिरा था। भगवान साथ थे। वे सैनिक जाकर जूझ गए। सात दिन में उन्होंने दुश्मन को परास्त कर दिया। वे जीते हुए वापस लौटे। उस मंदिर के पास उस फकीर ने कहा, अब लौट कर हम धन्यवाद तो दे दें!

वे सारे सैनिक रुके, उन सबने हाथ जोड़ कर भगवान से प्रार्थना की और कहा, तेरा बहुत धन्यवाद कि तू अगर हमें इशारा न करता जीतने का, तो हम तो हार ही चुके थे। तेरी कृपा और तेरे इशारे से हम जीते हैं।

उस फकीर ने कहा, इसके पहले कि भगवान को धन्यवाद दो, मेरे खीसे में जो सिक्का पड़ा है, उसे गौर से देख लो। उसने सिक्का निकाल कर बताया, वह सिक्का दोनों तरफ सीधा था, उसमें कोई उलटा हिस्सा था ही नहीं। वह सिक्का बनावटी था, वह दोनों तरफ सीधा था, वह उलटा गिर ही नहीं सकता था!

Friday, January 5, 2018

ईश्वर का पता

रात के एक बजा था, एक सेठ को नींद नहीं आ रही थी,
वह घर में चक्कर पर चक्कर लगाये जा रहा था। पर चैन नहीं पड़ रहा था । आखिर मैं थक कर नीचे उतर आया और कार निकाली . शहर की सड़कों पर निकल गया। रास्ते में एक गुरुद्वारा दिखा सोचा थोड़ी देर इस गुरुद्वारे में जाकर बैठता हूँ।  अरदास करता हूं तो शायद शांति मिल जाये। वह सेठ गुरुद्वारे के अंदर गया तो देखा, एक दूसरा आदमी पहले से ही गुरु गृंथ साहिब के सामने बैठा था, मगर उसका उदास चेहरा, आंखों में करूणा दर्श रही थी। सेठ ने पूछा " क्यों भाई इतनी रात को गुरुद्वारे में क्या कर रहे हो ?" आदमी ने कहा " मेरी पत्नी अस्पताल में है, सुबह यदि उसका आपरेशन नहीं हुआ तो वह मर जायेगी और मेरे पास आपरेशन के लिए पैसा नहीं है " उसकी बात सुनकर सेठ ने जेब में जितने रूपए थे  वह उस आदमी को दे दिए। अब गरीब आदमी के चहरे पर चमक आ गईं थीं । सेठ ने अपना कार्ड दिया और कहा इसमें फोन नम्बर और पता भी है और जरूरत हो तो निसंकोच बताना। उस गरीब आदमी ने कार्ड वापिस दे दिया और कहा "मेरे पास उसका पता है " इस पते की जरूरत नहीं है सेठजी आश्चर्य से सेठ ने कहा "किसका पता है भाई " उस गरीब आदमी ने कहा "जिसने रात को ढाई बजे आपको यहां भेजा उसका"

Monday, January 1, 2018

परीक्षा

किसी राजा के पास एक बैल था । एक बार उसने एलान किया की जो कोई इस बैल को   चारागाह में चराकर तृप्त करेगा मैं उसे आधा राज्य दे दूंगा।किंतु बैल का पेट पूरा भरा है या नहीं इसकी परीक्षा मैं खुद करूँगा।
इस एलान को सुनकर एक मनुष्य राजा के पास आकर कहने लगा कि बैल को चराना कोई बड़ी बात नहीं है।
वह बैल को लेकर खेत में गया और सारे दिन उसे घास चराता रहा,, शाम तक उसने बैल को खूब घास खिलाई और फिर सोचा की सारे दिन इसने इतनी घास खाई है अब तो इसका पेट भर गया होगा ! अब इसको राजा के पास ले चलूँ ,बैल के साथ वह राजा के पास गया,राजा ने थोड़ी सी हरी घास बैल के सामने रखी तो बैल उसे खाने लगा। इस पर राजा ने उस मनुष्य से कहा की तूने उसे पेट भर खिलाया ही नहीं वर्ना वह घास क्यों खाने लगता। बहुत लोगो ने बैल का पेट भरने का प्रयत्न किया किंतु ज्यों ही दरबार में उसके सामने घास डाली जाती तो वह फिर से खाने लगता। एक विद्वान् ब्राह्मण ने सोचा इस एलान का कोई तो रहस्य है ! इस कार्य में युक्ति से काम लेने से ही सफलता प्राप्त की जा सकती है ! वह बैल को चराने के लिए ले गया। जब भी बैल घास खाने के लिए जाता तो वह उसे लठ से मारता. सारे दिन में ऐसा कई बार हुआ . अंत में बैल ने सोचा की यदि मैं घास खाने का प्रयत्न करूँगा तो मार खानी पड़ेगी। अतः बैल भूखा ही रहने लगा ! शाम को वह ब्राह्मण बैल को लेकर राजदरबार में लौटा, बैल को तो उसने बिलकुल घास नहीं खिलाई थी फिर भी राजा से कहा मैंने इसको भरपेट खिलाया है। अत: यह अब बिलकुल घास नहीं खायेगा,, अतः कर लीजिये परीक्षा . राजा ने घास डाली लेकिन उस बैल ने उसे खाना तो दूर रहा देखा और सूंघा तक नहीं . बैल के मन में यह बात बैठ गयी थी कि अगर घास खाऊंगा तो मार पड़ेगी . अत: उसने घास नहीं खाई .

शिक्षा :- यह हमारा मन भी एक " बैल " ही है " बैल को घास चराने ले जाने वाला ब्राह्मण " आत्मा" है। राजा "परमात्मा" है।