Wednesday, August 19, 2015

ईश्वर का पत्र


मेरे प्रिय...
सुबह तुम जैसे ही सो कर उठे, मैं तुम्हारे बिस्तर के पास ही खड़ा था। मुझे लगा कि तुम मुझसे कुछ बात
करोगे। तुम कल या पिछले हफ्ते हुई किसी बात या घटना के लिये मुझे धन्यवाद कहोगे। लेकिन तुम फटाफट चाय पी कर तैयार होने चले गए और मेरी तरफ देखा भी नहीं!!!

फिर मैंने सोचा कि तुम नहा के मुझे याद करोगे। पर तुम इस उधेड़बुन में लग गये कि तुम्हे आज कौन से कपड़े पहनने है!!!

फिर जब तुम जल्दी से नाश्ता कर रहे थे और अपने ऑफिस के कागज़ इक्कठे करने के लिये घर में इधर से उधर दौड़ रहे थे...तो भी मुझे लगा कि शायद अब तुम्हे मेरा ध्यान आयेगा,लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

फिर जब तुमने आफिस जाने के लिए ट्रेन पकड़ी तो मैं समझा कि इस खाली समय का उपयोग तुम मुझसे बातचीत करने में करोगे पर तुमने थोड़ी देर पेपर पढ़ा और फिर खेलने लग गए अपने मोबाइल में और मैं खड़ा का खड़ा ही रह गया।

मैं तुम्हें बताना चाहता था कि दिन का कुछ हिस्सा मेरे साथ बिता कर तो देखो,तुम्हारे काम और भी अच्छी तरह से होने लगेंगे, लेकिन तुमनें मुझसे बात
ही नहीं की...

एक मौका ऐसा भी आया जब तुम
बिलकुल खाली थे और कुर्सी पर पूरे 15 मिनट यूं ही बैठे रहे,लेकिन तब भी तुम्हें मेरा ध्यान नहीं आया।

दोपहर के खाने के वक्त जब तुम इधर-
उधर देख रहे थे,तो भी मुझे लगा कि खाना खाने से पहले तुम एक पल के लिये मेरे बारे में सोचोंगे,लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

दिन का अब भी काफी समय बचा था। मुझे लगा कि शायद इस बचे समय में हमारी बात हो जायेगी,लेकिन घर पहुँचने के बाद तुम रोज़मर्रा के कामों में व्यस्त हो गये। जब वे काम निबट गये तो तुमनें टीवी खोल लिया और घंटो टीवी देखते रहे। देर रात थककर तुम बिस्तर पर आ लेटे।
तुमनें अपनी पत्नी, बच्चों को शुभरात्रि कहा और चुपचाप चादर ओढ़कर सो गये।

मेरा बड़ा मन था कि मैं भी तुम्हारी दिनचर्या का हिस्सा बनूं...

तुम्हारे साथ कुछ वक्त बिताऊँ...

तुम्हारी कुछ सुनूं...

तुम्हे कुछ सुनाऊँ।

कुछ मार्गदर्शन करूँ तुम्हारा ताकि तुम्हें समझ आए कि तुम किसलिए इस धरती पर आए हो और किन कामों में उलझ गए हो, लेकिन तुम्हें समय
ही नहीं मिला और मैं मन मार कर ही रह गया।

मैं तुमसे बहुत प्रेम करता हूँ।

हर रोज़ मैं इस बात का इंतज़ार करता हूँ कि तुम मेरा ध्यान करोगे और
अपनी छोटी छोटी खुशियों के लिए मेरा धन्यवाद करोगे।

पर तुम तब ही आते हो जब तुम्हें कुछ चाहिए होता है। तुम जल्दी में आते हो और अपनी माँगें मेरे आगे रख के चले जाते हो।और मजे की बात तो ये है
कि इस प्रक्रिया में तुम मेरी तरफ देखते
भी नहीं। ध्यान तुम्हारा उस समय भी लोगों की तरफ ही लगा रहता है,और मैं इंतज़ार करता ही रह जाता हूँ।

खैर कोई बात नहीं...हो सकता है कल तुम्हें मेरी याद आ जाये!!!

ऐसा मुझे विश्वास है और मुझे तुम
में आस्था है। आखिरकार मेरा दूसरा नाम...आस्था और विश्वास ही तो है।
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तुम्हारा ईश्वर...👣



Edited and Compiled by Mrs Preeti ji
(Senior & founder member of Yaatra )(spiritual watsapp group)

Saturday, August 8, 2015

चाह!

एक बार एक राजा ने नगर में घोषणा कर दी की कल सुबह महल के द्वार खुलने पर जो व्यक्ति जिस भी वस्तु को छुएगा वो वस्तु उस की हो जायेगी चाहे वो कितनी भी कीमती हो और उस में महल के व्यक्ति विशेष भी शामिल है।घोषणा सुनते ही अगली सुबह सारा शहर महल के द्वार पर इकठ्ठा हो गया ताकि द्वार खुलते ही अपनी पसंद की मेहंगी से मेहंगी वस्तु हासिल कर सके।सभी अपनी कल्पनाओ में कीमती वस्तुओ के सपने बुनने लगे।द्वार खुलते ही जन सैलाब उमड़ पड़ा। हर कोई व्यक्ति पागलो की तरह कीमती से कीमती वस्तु हासिल करने लगा। इतने में एक छोटी सी लड़की आराम से चलते चलते राजा के पास आ पहुंची । और उसे छू लिया।नियम के मुताबिक राजा उस लड़की के हो चुके थे और उस से सम्बंधित सभी वस्तुए भी।ठीक इसी प्रकार हम ईश्वर से भैतिक सुख पाने की अंधी दौड़ तो दौड़ते है परंतु स्वयं कभी उस की मांग नहीं करते।यदि वो हमें मिल जाए तो अन्ये वस्तुओ की लालसा स्वयं ही समाप्त हो जायेगी।इस बात को शास्त्रो में क्या खूब लिखा है
जाके वश खान सुलतान। ताके वश में सगल जहाँ!




Compiled and edited by Sh. Bharat ji
(Founder and senior member
Yaatra -watsapp group)

Saturday, August 1, 2015

सेवा और संबंध

मनुष्य का जीवन पाना अापार सौभाग्य व परमात्मा की बहुमूल्य भेंट है  यद्यपि इसकी दिशा और दशा प्रारबध  है किंतु  भक्ति मार्ग का चयन करने की मानव को पूर्ण स्वतंत्रता है परमात्मा की स्तुति पूजा उपासना व अंतत: साधना ही हमारा वास्तविक लक्ष्य है  इस रहस्य का आभास दुर्लभ है।इस पड़ाव पर पहुँच कर साधक की ईश्वर प्राप्ति की साधना का केवल गुरू रूपी कड़ी से पथ प्रशस्त होता है और वह अतं में अपने आराध्य से अभिन्न रूप से जुड़  जाता है
     साधना के भिन्न रूप जैसे सेवा ,तप, जाप ,योग इत्यादि परीक्षाओं और कठिनाई से परिपूर्ण हैं  इस मार्ग पर माया और प्रकृति की पकड़ भी दृढ़ हो जाती है जिसे अंहकार की वृद्धि और विवेक का हरण होता है
निम्नलिखित प्रसंग इस दशा की बख़ूबी विवरण करता है
 गुरुदेव रवींद्रनाथ जी से ऐसे ही असमंजस में फँसे एक छात्र ने पूछा- “गुरुदेव! कृपया यह बताएं कि संबंध और सेवा में क्या अंतर है? इन दोनों में कौन अधिक उपादेय है और किसका चयन करना चाहिए?” गुरुदेव ने कहा, 'संबंध और सेवा आपस में जुड़े हैं। भावनाओं के कारण ही संबंध बनते हैं और उन्हीं के उफान से व्यक्ति सेवा-कार्य करने लगता है। संबंध की अंतिम परिणति कई बार अधिक सुखद नहीं होती। संबंध में यदि अपेक्षाओं का बोझ डाल दिया जाए तो यह अति बोझिल व असह्य हो जाता है।सेवा के साथ भी अपेक्षा और परिणाम पाने की इच्छा बलवती हो जाए, तो यह अपना उद्देश्य खो बैठती है। अपेक्षा की अधिकता में संबंध खत्म हो जाते हैं, वहीं अपेक्षाओं की न्यूनता में ये विकसित होते हैं।“ ये ही नहीं सेवा करते-करते भी हम सेवा प्राप्त करने वाले के साथ एक अदृश्य संबंध बना बैठते हैं सेवा का उद्देश्य यदि निष्काम न हो तो हम जिसकी सेवा करते हैं, उसके बदले में कुछ न कुछ पाना चाहते हैं। हम उससे सद्भाव की अपेक्षा रखने लगते हैं और जब वह सेवा से प्रसन्न होकर हमारी प्रशंसा करता है तो हम उसकी ओर आकर्षित होने लगते हैं। इसकी परिणती एक नए संबंध के रूप में सामने आती है।संबंध तभी ठीक है जब अपेक्षाओं का बोझ कम हो और सेवा उत्कृष्ट हो यदि निष्काम भाव से करके आगे बढ़ जाना हो तो सेवा व संबंध दोनो ही श्रेष्ठ हैं संबंध हमें अकसर मोह से बाँध कर हमारी आध्यात्मिक उन्नति को रोकते है अपितु निष्काम सेवा उसमें वृद्धि लाती है।गुरू शरणागत मनुष्य को ही ये सुलझा हुआ विश्लेषण व मार्ग दर्शन नसीब होता है गुरू महिमा व कृपा के सानिध्य का ये अप्रतिम उद्धारण है


Compiled and edited by Preeti ji
(Founder memeber of Yaatra watsapp group)